जनसंघ से भाजपा औऱ 2 से 303 सीटों तक का सफर...

आज 6 अप्रैल है यानी भारतीय जनता पार्टी का जन्मदिन है. भाजपा आज 41 साल की हो गई है. 6 अप्रैल 1980 को जनता पार्टी से अलग होकर अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व अन्य लोगों ने मिलकर भारतीय जनता पार्टी बनाई.

वैसे तो विश्व की सबसे बड़ी पार्टी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चायना को माना जाता था, लेकिन 2014 में अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा ने लगातार नई सफलताएं हासिल की. जिसमें पार्टी में लोगों को जोड़ने के लिए सदस्यता अभियान के अलग-अलग कई कार्यक्रम चलाए गए.

भाजपा की स्थापना के बाद 28-30 दिसंबर 1980। को बांद्रा कुर्ला स्टेडियम में भाजपा का पहला अधिवेशन हो रहा था, उस अधिवेशन में 50 हजार लोग मौजूद थे. उस समय भाजपा के 25 लाख सदस्य बन चुके थे. एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में भाजपा को लगभग 17 करोड़ वोट मिले औऱ 2019 में 23 करोड़. आज 10 करोड़ से अधिक भाजपा के सक्रिय सदस्य हैं औऱ यही कारण है कि भाजपा देश ही नहीं बल्कि विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है.

भाजपा के इस 41 साल के सफर में पार्टी जैसे-जैसे जवान होती गयी, वैसे-वैसे एक युवा की तरह अपने सपनों को पूरा करती गयी. लेकिन यह अकस्मात या चमत्कार नहीं है, इसके पीछे समर्पण, मेहनत, इच्छाशक्ति औऱ एक रणनीति है, जिसे समय-समय पर तत्कालीन अध्यक्षों ने बदला औऱ परिणाम में 2 से 282 औऱ 303 सीटों तक पहुंची.

अब बात इतिहास की.......

21 अक्टूबर 1951 को श्याम प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ (बीजेएस) की स्थापना की. भारतीय राजनीति में जनसंघ नाम से लोकप्रिय ये राजनीतिक दल देश की राजनीतिक व्यवस्था में कांग्रेस के बढ़ते वर्चस्व को कम करने के लिए और लोगों के सामने एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए बनाया गया था. ये राजनीतिक विचारधारा हिन्दू राष्ट्रवाद से प्रभावित थी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे पर चलकर सत्ता हासिल करने को अपना लक्ष्य मानती थी.

(फ़ाइल फ़ोटो - श्यामा प्रयास मुखर्जी)

1952 में हुए पहले आम चुनाव में जनसंघ ने 3 सीटें जीती औऱ 3.1 फीसदी मत प्राप्त किए. जनसंघ ने 1953 में कश्मीर मुद्दे को जोर-शोर से उठाया. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक देश-एक निशान-एक विधान का नारा दिया. मई 1953 में कश्मीर में प्रवेश करने के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अगले महीने श्रीनगर में उनकी मौत हो गई. कुछ दिनों के बाद जनसंघ की कमान दीनदयाल उपाध्याय के हाथों में आ गई. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का नारा दिया.

1957 में दूसरे लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने 5 सीटें जीती औऱ 4.9 फीसदी मत प्राप्त किए. इसी चुनाव में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी जीतकर लोकसभा पहुंचे थे.

1962 के तीसरे आम चुनाव में 14 सीटें जीतकर 6.44 फीसदी मत प्राप्त किए.1967 के लोकसभा चुनाव में 9.5 फीसदी मत प्राप्त कर 32 सांसद जीतकर आए. 1968 में अटल बिहारी वाजपेयी को जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया. अब धीरे-धीरे जनता जनसंघ को कांग्रेस का विकल्प स्वीकार कर रही थी. लेकिन ठीक उलट 1971 के चुनाव में जनसंघ की सीटों के साथ वोट प्रतिशत भी गिरा, जनसंघ को 23 सीटों औऱ 7.4 फीसदी वोट से संतोष करना पड़ा. अब लालकृष्ण आडवाणी ने जनसंघ की कमान संभाली, लेकिन राह आसान नहीं थी.


आपातकाल औऱ जनसंघ

25 जून 1975 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने भाषण में कहा, "राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक आपातकाल लगाने का ऐलान किया है. इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि विपक्ष में बैठे कुछ लोग न केवल एक बड़ी साजिश रच रहे थे बल्कि देश के लोकतंत्र को भी खतरा पैदा कर रहे थे". 

आधी रात को जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई समेत देश के कई अहम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था. वाजपेयी बंगलौर में थे औऱ आडवाणी बंगलौर पहुंच रहे थे क्योंकि 26 औऱ 27 जून को दल-बदल के खिलाफ कानून बनाने के लिए संयुक्त संसदीय समिति की बैठक होने वाली थी. आडवाणी, वाजपेयी समेत कई नेताओं को बंगलौर सेंट्रल जेल भेज दिया था.

आडवाणी 19 महीने जेल में रहे. आपातकाल के दौरान हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मीसा के तहत जेलों में ठूँस दिया गया. इसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया. संघ के लोग जो जेल नहीं गए थे उन्होंने भूमिगत रह कर या दूसरे तरीकों से न केवल आपातकाल के खिलाफ जनमत तैयार करने का काम किया बल्कि जेल गए नेताओं के परिवारों का ध्यान रखने की जिम्मेदारी भी उठाई.

आपातकाल खत्म होने के बाद 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ सम्पूर्ण विपक्ष एकजुट हुआ. जयप्रकाश नारायण सम्पूर्ण क्रांति अभियान की शुरुआत पहले ही कर चुके थे. जयप्रकाश नारायण ने गैर-कांग्रेसी दलों को एक साथ लाने की कोशिश की. भारतीय जनसंघ भी "जनता पार्टी" में शामिल हो गया. यह कांग्रेस के खिलाफ एक प्रकार से "महागठबंधन" ही था.

1977 में आम चुनाव की घोषणा हुई. कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा.जनता पार्टी ने 542 में से 298 सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटों पर जीत मिली. इससे भी बड़ा झटका यह था कि श्रीमती गांधी रायबरेली से औऱ उनके बेटे संजय गांधी अमेठी से चुनाव हार गए थे. जनता पार्टी को 41.32 फीसदी वोट मिले जबकि कांग्रेस को 34.52 फीसदी. चुनाव में जनता पार्टी में शामिल दलों में वाजपेयी के नेतृत्व वाले जनसंघ गुट को सबसे ज्यादा 93 सीटें मिली.देश में यह पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी, मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. आडवाणी को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा वाजपेयी को विदेश मंत्रालय संभालने की जिम्मेदारी मिली.

लेकिन जनता पार्टी की सरकार में आंतरिक कलह व नेताओं की महत्वकांक्षाओं के चलते यह सरकार ज्यादा समय तक नहीं चली औऱ मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दे दिया.

1980 में देश फिर चुनाव के लिए खड़ा था.जनता पार्टी पूरी तरह बिखर गई थी.जनसंघ ने 1980 का चुनाव भी जनता पार्टी के नाम पर ही लड़ा. जिस जनता पार्टी को 1977 में 298 सीटें मिली थी उसे इस चुनाव में मात्र 31 सीटें ही मिल पाई, इसमें जनसंघ की 16 सीटें थी जबकि पिछले चुनाव में उनके 93 सांसद चुने गए थे. वहीं कांग्रेस की सीटें 153 से 351 हो गयी थी.


भारतीय जनता पार्टी का गठन

1980 के चुनावों में मिली करारी हार से भाजपा का जन्म हुआ. 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला मैदान ( अब अरुण जेटली स्टेडियम) में एक राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. साढ़े तीन हजार से ज्यादा प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया औऱ 6 अप्रैल को एक नये राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ. 



29 दिसंबर 1980। "अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा...' इतना सुनते ही बम्बई का शिवाजी पार्क मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था.नयी-नयी बनी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण ने कार्यकर्ताओं में जोश भर दिया.

31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. पूरा देश स्तब्ध हो गया. इसके बाद देशभर में सिख विरोधी दंगे हुए.उस वक्त के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने 31 अक्टूबर को ही राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी.सरकार ने लोकसभा भंग कर पैंतालीस दिनों में आम चुनाव कराने का ऐलान कर दिया. इसी दौरान राजीव गांधी ने बोट क्लब पर एक सभा में कहा था, "जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन तो हिलती ही है." 

(फ़ाइल फ़ोटो - पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी)

1984 के चुनावों में देश इंदिरा गांधी की हत्या के शोक में डूबा हुआ था. पूरा देश इंदिरा गांधी की हत्या से नाराज था. इसी भावनात्मक ज्वार का खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा. कांग्रेस ने 404 सीटों पर जीत हासिल की वहीं भाजपा सिर्फ 2 सीट जीत सकी. जिसमें गुजरात के मेहसाणा से डॉ. ए के पटेल व आंध्रप्रदेश के हनमकोंडा से चंदुपटल जंगा रेड्डी ने चुनाव जीता. वाजपेयी खुद ग्वालियर से चुनाव हार गए.

वाजपेयी ने भाजपा में कट्टर हिंदूवादी विचारधारा से दूर ज्यादा खुलापन लाने की कोशिश की.एक और अहम बदलाव वाजपेयी ने जनसंघ औऱ भाजपा में किया. यह बदलाव था पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद औऱ गांधीवादी समाजवाद को जोड़ना.कांग्रेस भी इसी रास्ते पर चलकर आगे बढ़ रही थी. भाजपा में इसको लेकर एक राय नहीं बन पा रही थी, कुछ लोगों ने तो खुलकर विरोध भी किया.

मई 1986 में दिल्ली में भाजपा राष्ट्रीय परिषद की बैठक में आडवाणी को अध्यक्ष चुना गया.1989 में 9वीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा ने अप्रत्याशित बढ़त हासिल करते हुए 86 सीटों पर जीत दर्ज की.इसका कारण था भाजपा अब संघ से प्रभावित ही नहीं थी बल्कि काफी हद तक हस्तक्षेप बढ़ चुका था. भाजपा गांधीवादी समाजवाद से अब हिन्दू राष्ट्रवाद की ओऱ बढ़ गई थी.

भाजपा ने अब तय कर लिया था कि वह राम मंदिर निर्माण में विश्व हिंदू परिषद का साथ देगी. वाजपेयी की नाराजगी के बावजूद भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 से सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकालने का ऐलान कर दिया. लेकिन यह यात्रा पूरी न हो सकी 23 अक्टूबर 1990 को बिहार की लालू प्रसाद यादव सरकार ने समस्तीपुर से गिरफ्तार कर लिया. आडवाणी को 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचना था.

(रथयात्रा के दौरान आडवाणी और मोदी)

आडवाणी ने कहा,"इस दौरान धर्मनिरपेक्षता औऱ साम्प्रदायिकता को लेकर काफ़ी बहस हुई है लेकिन भाजपा हमेशा सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता की बात करती रही है. इसका मतलब है कि सभी को न्याय, लेकिन तुष्टिकरण किसी का नहीं".

राजनेताओं को धार्मिक मसलों में दखल नहीं देना चाहिए, इस विचार के साथ वाजपेयी ने राम रथयात्रा का विरोध किया था. लेकिन उन्हीं वाजपेयी ने पार्टी के फैसले को मानते हुए आडवाणी की यात्रा को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हरी झंडी दिखाई थी.

रथयात्रा से देश में भाजपा के प्रति सकारात्मक माहौल तैयार हुआ परिणामस्वरूप 1991 के आम चुनावों में भाजपा को 120 सीटें मिली.

6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों द्वारा विवादित ढांचे को गिरा दिया गया. देशभर में साम्प्रदायिक दंगे भड़के, कई जगह हालात बिगड़े कर्फ्यू भी लगाना पड़ा. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला 9 नवंबर 2019 को सुना दिया. कोर्ट ने भी भाजपा की इच्छा के मुताबिक ही फैसला सुनाया.

1993 में लालकृष्ण आडवाणी ने पुनः भाजपा का अध्यक्ष पद संभाला. वाजपेयी कट्टर हिंदुत्व व उग्र राष्ट्रवाद की छवि से बचना चाहते थे जबकि पार्टी का एक धड़ा इसी के सहारे आगे बढ़ना चाहता था. वाजपेयी थोड़े अलग पड़ने लगे, लेकिन भाजपा वाजपेयी के बिना आगे नहीं बढ़ सकती थी.

(फ़ाइल फ़ोटो - पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी)

1996 के लोकसभा चुनावों में किसी भी दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर पहली बार उभरी थी. इन चुनावों में भाजपा को 161, कांग्रेस को 140, जनता दल को 46, सीपीएम को 32, सीपीआई को 12, समाजवादी पार्टी को 17, डीएमके को 16 सीटें मिली थी.

राष्ट्रपति ने सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर भाजपा को सरकार बनाने औऱ बहुमत साबित करने का मौका दिया.भाजपा कुल मिलाकर 194 वोट ही जुटा पायी थी, इसमें शिवसेना, समता पार्टी और हरियाणा विकास पार्टी तो उसके साथ पहले से थी, सिर्फ अकाली दल का समर्थन ही नया था. यह सरकार बहुत हासिल न कर सकी और 13 में ही गिर गई.

1998 के आम चुनावों में भाजपा एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी औऱ इस बार 182 सांसद जीतकर आए. लेकिन विश्वास मत में सरकार एक वोट से हार गयी थी औऱ मध्यावधि चुनाव कराने पड़े थे, इसीलिए भाजपा ने स्थायित्व को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया.

1998 में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पिछले राजनीतिक अनुभवों से सबक लेकर गठबंधन को मजबूत बनाने की तैयारी कर ली थी.

1999 में फिर लोकसभा के चुनाव हुए, अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. एनडीए को 306 सीटें मिलीं, हालाँकि भाजपा के खाते में कोई इजाफा नहीं हुआ. उसे 182 सीटें ही मिल पायीं. लेकिन कांग्रेस का खासा नुकसान हुआ. उसे सिर्फ 114 सीटें हीं मिलीं जबकि पिछली बार उसके 140 सांसद थे, यानी 26 का नुकसान.

(फ़ाइल फ़ोटो - पूर्व PM वाजपेयी औऱ आडवाणी)

वाजपेयी ने अपनी 5 साल की पूरी सरकार चलाई लेकिन इन पांच वर्षों में भाजपा में संघ का प्रभाव काफी ज्यादा बढ़ गया था, हर निर्णय में संघ के हस्तक्षेप से वाजपेयी नाराज थे. वाजपेयी अपने अनुसार काम करना चाहते थे.

2004 के आम चुनावों में भाजपा ने "शाइनिंग इंडिया" के धमाकेदार शोर के साथ चुनाव प्रचार शुरू किया. वाजपेयी को चुनाव से पहले ही लगने लगा था कि 'शाइनिंग इंडिया' के नारे से काम नहीं चलेगा.

2004 के चुनाव में कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 217 सीटें मिलीं. कांग्रेस 114 से बढ़कर 145 पर पहुंच गयी. लेफ्ट पार्टियों को अब तक कि सबसे ज्यादा 62 सीटें मिलीं.समाजवादी पार्टी को 35 जबकि एनडीए के सिर्फ 187 सांसद ही चुनकर आये. इस चुनाव में भाजपा को सिर्फ 138 सीटें ही मिल पायीं.

पार्टी के सत्ता से बाहर होते ही पार्टी में बदलाव स्वभाविक था. 2005 में राजनाथ सिंह को भाजपा का अध्यक्ष चुना गया. इसके अतिरिक्त भी वैंकेया नायडू, नितिन गडकरी आदि ने भी पार्टी अध्यक्ष का पद संभाला था.

2009 के चुनावों में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा,मगर अपनी सरकार बनाने के मुताबिक सीटें न ला सकी. इस चुनाव में 119 सांसद चुनकर आए.

09 से 14 के पांच वर्षों में कांग्रेस गठबंधन सरकार से जनता अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रही थी. लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से गिरी कांग्रेस सरकार जन आंदोलन का भी सामना किया.

2014 में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का निर्णय तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने किया.

मोदी कट्टर हिंदुत्व की छवि वाले नेता थे औऱ उनके सबसे करीबी और विश्वास पात्र अमित शाह. अब भाजपा में एक नए युग की शुरुआत हो चुकी थी, जो भाजपा में अपने ढंग से बदलाव करना चाहते थे. 2014 में नरेंद्र मोदी ने 3 लाख किलोमीटर की यात्रा कर 25 राज्यों में कुल 437 रैलियां की थी. जनता तक अपनी बात पहुंचाई औऱ पहली बार देश में भाजपा की 282 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. मोदी लहर में कोई नहीं टिक पाया, अपार जनसमर्थन मिला औऱ पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को बनाया गया.

अमित शाह का लक्ष्य एक ही रहता है, हर राज्य में भाजपा के कार्यक्रम आयोजित करना, पार्टी में कार्यकर्ता के तौर पर लोगों को जोड़ना. अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने लगभग सभी राज्यों में अपनी पार्टी का प्रसार किया व गठबंधन की सरकारें भी बनाई.

यह भाजपा का मोदी-शाह युग चल रहा है, इसमें पार्टी देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी बनने का दावा करती है. 2019 के आम चुनावों में भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई लेकिन कमजोर विपक्ष सफल न हो सका. भाजपा ने अपने दम पर सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 303 सीटें जीती. भाजपा अब अपने अबतक के आक्रामक रूप में है. विपक्ष जो नारा या मुद्दा उठाकर भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश करता है, भाजपा उसी नारे औऱ मुद्दे को लेकर औऱ अधिक आक्रामक होकर जनता के बीच जाती है.

(2019 में जीत के बाद मोदी औऱ शाह)

भाजपा के इस उत्थान में सोशल मीडिया, इंटरनेट औऱ सूचना व तकनीकी क्रांति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. देश के युवाओं को जोड़कर बूथ स्तर तक एक रणनीति बनाई जाती है और सभी को उसी के अनुरूप एक साथ लेकर चला जाता है. भाजपा का रथ अभी रुकता नजर नहीं आ रहा है.

भाजपा ने जनता को यह अच्छी तरह समझा दिया है कि दशकों तक जो लोग सत्ता में थे, उन्होंने लगातार बहुसंख्यक समुदाय के हितों एवं भावनाओं को नजरअंदाज किया है. तुष्टिकरण की राजनीति से बहुसंख्यक आबादी भी निजात पाना चाहती थी. भाजपा को सही मौका औऱ प्रभावशाली नेतृत्व मिला औऱ फिर शुरू ही ध्रुवीकरण की राजनीति. धर्म में राजनीति न हो यह ठीक है लेकिन राजनीति में धर्म की बात पर असमंजस होती है. फिलहाल धर्मनिरपेक्षता ही सभी पार्टियां अपना धर्म मानती है, लेकिन साम्प्रदायिक होकर फायदा लेने की चाह भी होती है.

ऊपर लिखे आलेख में आंकड़े चुनाव आयोग की वेबसाइट से तथा कुछ किस्से औऱ तथ्य विजय त्रिवेदी द्वारा लिखी गई पुस्तक "हार नहीं मानूँगा" से लिए गए हैं.

सचिन पारीक




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